हमारे यहां यह परम्परा रही है की मरने के बाद हम लोगों के गुण याद रखते हैं तथा अवगुणो को भुलने की कोशीश करते है । हेमंत करकरे को मिडिया देश का नायक और शहीद बनाने पर तुली हुइ है । लेकिन यह बात समझनी होगी कि किसी
अफसर के लिए एक निर्दोष साध्वी के उपर झुठा आतंकवादका आरोप लगाकर तङ्ग करना आसान होता है । लेकिन जब असली दहशतगर्द आतंकवादी से सामना होता है तब आपकी बहादुरी की असली परीक्षा होती है ।
एक और बात गौर करने लायक है की हेमंत करकरे की मौत आतंकवादीयों से लडते हुए नही हुइ थी । वह ठीक उसी तरह मरे जीस तरह मुर्म्बई में पौने दो सौ आम शहरी मरे थें । एक कार में घुमते वक्त आतंकीयों ने इन पर हमला किया था
तथा इन की कार कब्जे मे कर उसी मे बैंठ आतंकीयों ने सैकडो लागो को मौत के घाट उतारा था । हेमंत करकरे ने कोई बहादुरी नही दिखाई और बिलकुल आम आदमी की तरह आतंकीयो पर विना किसी जबाबी हमले किए मारे गए। क्या इन्हे बहादुर शहीद कहना उचित है।
मेजर उन्नीकृष्णन तथा हवलदार गजेन्द्र सिंह ने लडते लडते मां भारती की लाज बचाने के लिए मौत को अपने गले लिया था। उनके लिए मेरा दिल का रोआं रोआं कृतज्ञ है।